Sunday 9 June 2013

देवता

मैं देखती हूँ स्वप्न
एक दिन धरती पर जब पाप होगा अपने चरम पर
(चरम की परिभाषा निर्धारित नहीं है )
सभी पत्थरों से देवता कर जायंगे कूच
और निकल आयेंगे बाहर
चूँकि देवता इंसानों के डर से अपने मंदिर
मैं नहीं रहते निहथ्थे
इसलिए जब वे आयेंगे बाहर
तो होंगे हथियारों से लैस

वे टिक न पायंगे मिसाइलों के सामने
भाले धनुष और तलवार लेकर
हार जायंगे हर लड़ाई
इंसान अपने गढ़े देवताओं को देखेगा हारते
कोसेगा अपने पूर्वजों को
फिर गढ़ेगा
नया इश्वर
नए देवता
उनके हाथों में होंगे आधुनिक हथियार
काश की इस बार वो अपने देवता गढ़े
हाड़ मांस के
न कि पत्थरों से
                                                    मृदुला शुक्ला

2 comments:

  1. Very nice Mridula ji...ye aaj ke sandarbh ki hi rachna hai.

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  2. संवेदन को पुकारती ... अच्छे अर्थ वाली अच्छी कविता ..

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