त्रासद है
बनना दिया
मगर सार्थक हो जाता है जलना
जब तेज हवाओं में हिलती लौ
सहेज ली जाती है
दो मेहंदी लगी हथेलियों से
बनना दिया पूजा की थाल का
हर हाथ गुजर जाता है
उसके ऊपर याचक की मुद्रा में
निगाहें नीची किये
मांगते हुए कभी क्षमा कभी कुछ और
तुलसी के चौरे का ,
माथे पर आँचल किये
पनीली आँखे समेटती हैं उजास
अपनों के लिए
और हर जगह पास पड़ी
तीली सुलग रही होती है
धुंवा धुंवा
सौंप कर दिए को
अपना प्रकाशवाही साम्राज्य
मृदुला शुक्ला