Monday 22 April 2013

अजनबियत...

कल अजनबी सा ये शहर
आज खासा हमदर्द सा लगा
जब से जाना
अजनबियत है
कायदा और अदब इसका

आज गुजरते हुए फुटपाथ से
देखा चार पैबंद लगी चादरों
को खींच कर बनाया प्रसव् गृह
और भीतर जन्म लेता
एक नया जीव

सामने पार्क के ब्याई काली कुतिया
याद आ गयी
सदः प्रसवा शिशु पिल्लै गडमगड
हो गए मेरी आँखों के सामने

मैंने चढ़ाया आँखों पर
अजनबियत का चश्मा
आखिर ये कायदा और अदब है मेरे
मेरे शहर का
और देखो !
अब ये शहर अजनबी नहीं रहा
मृदुला शुक्ला

उदासी

बहुत ख़याल रखती है ये उदासी मेरा
दिन भर आस पास रहती है
जिसे छोड़ गए थे
मेरे दायरों में तुम ,
और शायद बोल भी गए होगे
ख़याल रखने को

दिन भर ओढ़ कर रखती हूँ इसे
शाम को आधा बिछा लेती हूँ
और जो बचती है
इसे आँखों से गिरा
चादरों और तकियों
पे सजा लेती हूँ

ये सितारों जो सजे होते हैं तकियों पे मेरे
रात भर जुगनू सा टिमटिमाते हैं

डरती हूँ कहीं लौट करआ जाओ न तुम
मेरी शामों मेरे तकियों
पे सजे तारे समेट लेने को
लगा के मुझे फिर से
गुलाबी रौशनी का नशा
चुपचाप बिन कहे
फिर से चले जाने को
मृदुला शुक्ला

मेरी कविता...

मैंने कब कहा की मैंने जो लिखा
उसे सजा दो तुम मंदिरों मैं
मान कर तुलसी का मानस
ये भी तो नहीं कहा की
मानो मुझे अपाला घोषा या गार्गी

इमान से सोच कर बोलो की मैंने कहा कभी ये
की मैं गढ़ रही हूँ कोई शास्त्र या पुराण
भयभीत मत हो
भय और असुरक्षा आक्रामक बना देती है हमें
बेवजह

माना की तुम स्वम्भू पञ्च हो
अनादि परमेश्वर
हमें साध नहीं है
पञ्च होने की
कूको न तुम पंचम स्वर में
हमें गाने दो हमारा आदिम अनगढ़ गान

( झींगुरों और टिटिहरियों के आवाज के बिना भी अपूर्ण होता है जंगल )
मृदुला शुक्ला

खुद से प्रेम...

जब बात चलती है प्रेम की तो आँखों में
तैर जाता है तुम्हारा चेहरा अनायास
फिर हिंडोले सा झूलता है हुआ
तुम्हार संसार
सहेजती हूँ!!
पिछली शाम
खरीद कर लाया टी सेट ,
माँकी दी हुई साडी ,
सासु माँ के कंगन,
वो तुलसी जो बालकनी को आँगन बनती है

संभाल कर जलाती हूँ रोज मंदिर का दिया
अंदर कुछ टूट जाता है जब
बर्तन मांजते हुए महरी से टूट जाता है
पुराने कप का हैण्डल

बेचैन रहती हूँ दिन भर
जब तुम भूल जाते हो अपना टिफिन
हड़बड़ी में
जबकि जानती हूँ की कंटीन है
तुम्हारे केबिन के बगल में

जीती हूँ तुम्हारे रिश्ते नाते
अपनों की तरह
तुम्हारी दुनिया की परिधि में खींच लेती हूँ एक नयी वृत्त
तुम्हे केंद्र मान कर
सब से प्रेम करती हूँ
सिवाय खुद के
कल एक ख्याल आया की
चलो खुद से भी प्रेम किया जाए

धत्त !!औरतों से भी कोई कोई प्रेम करता है
उनसे तो इश्क किया जाता है
मृदुला शुक्ला

चाँद और रोटी

पिछली पूरनमासी पर जब तुम्हारा पोर पोर
डूबा हुआ था चाँद से टपकते शहद मैं
तो मैं अपनी कविता में बो रही थी रोटियाँ
खेतों मैं गेंहू बोने सा
बालियों में रस पड़ने सा
या खेतों में पक कर सुनहरी धूप के फैलने सा

क्यूंकि चादं से टपकता शहद एक चीख बन कर मेरे
कानो में घुला था
भूखों !यूँ मत देखो मुझे मैं रोटी नहीं हूँ

जबकि मैं जानती हूँ की कवितायें नहीं भरती पेट
कविता लिखने वालों का भी

जब तुम गा रहे थे झील बादल ओस !
तो मैं भटक रही होती हूँ तीजन के साथ
सर पर पानी का मटका लिए
पत्थरों के जंगल मैं
तुम्हारे ख्यालों की झील से से १० कोस दूर

क्यूंकि मैं ये भी जानती हूँ की ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती

तुम चलो ना !
रास्ते के दायीं तरफ और
मैं चलती हूँ बायीं तरफ
फिर भी हम होंगे साथ साथ
सामानांतर और
शायद अलग अलग भी 
                                                       -मृदुला शुक्ला 

खबर

सुबह तो लपक कर पकड़ते हो तुम हमें
और फिर सबसे पहले मिलती
भी उसे हूँ जो
पावरफुल हो घर में
रिटायर्ड बुजूर्ग ताकते हैं अपनी बारी को
इस उलाहने के साथ
की कौन सा तुम्हे ऑफिस जाना है

कई बार मुझे होठों मैं बुदबुदा कर पढ़ा जाता है
तो कई बार चटखारे लेकर जोर जोरसे
पड़ोसियों को भी कभी कभी सुनना पड़ता है अनचाहे
मुझे अगर मुझे में ताने जैसा मसाला हुआ तो

जितनी मसालेदार हुई
पढ़ी भी जाती हूँ उतने उच्च स्वर मैं

अरे अखबार की
खबर हूँ मैं !
मगर शाम होते ही हो जाती हूँ बासी
फिर एक दिन बेच दी जाती हूँ
कबाड़ी के हाथ कबाड़ के भाव
और रीसाइक्लिंग मैं बिखर जाता है रेशा रेशा मेरा

और आज फिर देखो मैं आ गयी पुनर्जन्म लेकर
अरे हम ख़बरें भी मरती हैं क्या भला
हम तो बस बदल लेती हैं अखबार
मृदुला शुक्ला

कविता...

मैं नहीं लिखना चाहती कविता
न गढ़ना चाहती हूँ
ये न तो रास है न रंग
न ही मेरा प्रेमपत्र
ये बाकायदा प्रसवित की जाती मेरे द्वारा
एक सम्पूर्ण प्रसव वेदना के उपरांत

विसंगतियां बीज डाल देती हैं मुझमे
मेरी संवेदना की नाल से जुड़ वो
सोखने लगती ही प्राण रस
अवधि पूरी होने पर अवशम्भावी है
प्रसव का हो जाना

"मेरी संवेदना और विसंगतियों की वैध संतान है मेरी कविता "
                                                                                                                          -मृदुला शुक्ला

Thursday 4 April 2013

सन्नाटे बोकर गीत उगती हूँ...

सन्नाटे बोकर गीत उगाती हूँ
देखो मै तूफानों में भी दीप जलाती हूँ ,

बिजुरी को बाँधा है मैंने आँचल से
मैं मेह खींच कर लाती हूँ काले जिद्दी बादल से,

सूरज भी मेरी खातिर छुप छुप कर छांह करे है
अग्निमुखी गीतों से मै अलख जगाती हूँ,

सन्नाटे बोकर गीत उगाती हूँ!

बंजर मे भी बीजों के बिन आशा के पौध लगाती हूँ
शमशानों मे भी जाकर जीवन ही दोहराती हूँ,

घिर कर के घोर विप्पति मे भी अपना धर्म निभाती हूँ
मैं नीलकंठ विषपायी बनकर जहर पचाती हूँ|
सन्नाटे बोकर गीत उगाती हूँ !

                                                                                                    -मृदुला शुक्ला

महिला दिवस

 आइये मनाएं महिला दिवस
की शायद कल हट सकें
अस्पतालों के बाहर लगी तख्तियां
जिन पर लिखा होता है
की "यहाँ लिंग परिक्षण नहीं किया जाता"
(की जो इशारा मात्र होता है
 यह बताने का यहाँ ये संभव है)

की शायद बंद हो सके
दी जाने वाली बधाईयां
पुत्र जन्म पर
गाये जाने वाले सोहर
बजाई जाने वाली थाली
हिजड़ों के नाच
और बेटी के जन्म पर
"कोई नहीं जी आजकल तो
बेटे और बेटी बराबर हैं"


की शायद फिर न
नोच कर फेक दी जाए
गटर के पास कोई कन्या
जो पिछले नवरात्रों में
पूजी गयी थी
देवी के नाम पर

की शायद बंद हो सके चकले
जहाँ हर दिन औरत
तौलकर खरीदी जाती है
बकरे और मुर्गे
के गोश्त के भाव

की शायद जीवन साथी चुनते समय
देखि जाए सिर्फ और सिर्फ लड़की
न तौली जाए रूपए या रसूख के पलड़े पर
और फिर न ढ पड़े किसी बाप को अपनी
जिन्दा जलादी गयी बेटी की लाश

की शायद खाली पेट
और दोहरी हुई पीठ
पर बच्चा बांधे
सर पर सीमेंट का टोकरा लिए
बिल्डिंग की इमारत पर चढ़ती औरत
न तौली  जाए
ठेकेदार की नज़रों से
रात के
स्वाद परिवर्तन के लिए

की शायद फिर न
कोई प्यारी खूबसूरत शक्ल
जला दी जाए एसिड से
अस्वीकार करने पर
अवांछित प्रणय निवेदन

की हम औरते भी मानी जाए
देह से परे भी कुछ
बलत्कृत न हों
हर बार
घर से बाहर निकलने पर
भीतर तक भेदती निगाहों से
और उन गालियों से
जो हमारे पुरुषों को दी जाती हैं
हमारे नाम पर

की शायद.........
की शायद......

की हम भी
स्वीकार कर लिए जाएं
सामान्य इंसान की तरह
आइये मनाये महिका दिवस
इस उम्मीद के साथ
की अगले वर्ष कुछ तो
बदला रहेगा हमारे लिए

                                                                        -मृदुला शुक्ला

फाग..


सुबह से होली की धूम रही
हम एक दुसरे के गालों पर लगा कर
काले, हरे ,सियाह रंग
एक दुसरे के चेहरों को कर बदरंग
नाचते रहे ढोलकी की थाप पर
ढोलकी भी गाता रहा
"चिपका ले सैयां फेविकोल से "
और बेचारा फाग
दूर उदास खड़ा हमें देखता रहा
मैंने बात की तो कहने लगा .......................

अफ़सोस करूँ ये की मुझे भूल गए सब
या यूँ कहूं की लोग मुझे जानते नहीं

फाग .....(फागुन मैं होली पर गाया जाने एक विशेष गीत )
                                                                                                -मृदुला शुक्ला

ईसा मसीह नहीं हूँ....



तुम्हे पता भी है ?
की तुम्हारे सवालों ने मुझे
हर बार लटकाया है सलीब पर !
जबकि तुम भली भाँती जानते थे
की मैं ईसा मसीह नहीं हूँ


फिर मैं हर बार
बुदबुदाती रही
हे प्रभू !
इन्हें माफ़ करना
क्यूंकि ये नहीं जानते की ये मेरे लिए क्या हैं ?
                                                                                -

                                                                                                  -मृदुला शुक्ला

यादें

यादें बचपन के अंगूठे में लगी
ठेस सी होती हैं
जो भरते भरते
फिर से ही दुःख जाती हैं अचानक
खेल खेल में

और भूलने की कोशिश
उन की सलाइयों पर
छूट गया वो फन्दा
जो शाम को उधड़वा देता है
पूरी बुनाई
कल दुबारा बुनने के लिए

जेठ की दोपहर मैं डामर वाली सड़क पर
खुले सर और नंगे पाँव चलना है
जब पिघलता डामर लिपट रहा हो पैरों से
तो बस हिकारत से देख सूरज को कह देना
देखो तुम भी मत टपक पड़ना
इन निगोड़ी यादों सा

भूलना और याद करना शायद
पहुंचना होता है टी पॉइंट पर
जहाँ ख़तम नहीं होता पुराना रास्ता
बस दो और राहें फूट पड़ती है
उलझन भरी
                                                                          मृदुला शुक्ला

बड़े शहर

बहुत ख़याल रखती है ये उदासी मेरा
दिन भर आस पास रहती है
जिसे छोड़ गए थे
मेरे दायरों में तुम ,
और शायद बोल भी गए होगे
ख़याल रखने को

दिन भर ओढ़ कर रखती हूँ इसे
शाम को आधा बिछा लेती हूँ
और जो बचती है
इसे आँखों से गिरा
चादरों और तकियों
पे सजा लेती हूँ

ये सितारों जो सजे होते हैं तकियों पे मेरे
रात भर जुगनू सा टिमटिमाते हैं

डरती हूँ कहीं लौट करआ जाओ न तुम
मेरी शामों मेरे तकियों
पे सजे तारे समेट लेने को
लगा के मुझे फिर से
गुलाबी रौशनी का नशा
चुपचाप बिन कहे
फिर से चले जाने को
                                                               -मृदुला शुक्ला

उदासी..

बहुत ख़याल रखती है ये उदासी मेरा
दिन भर आस पास रहती है
जिसे छोड़ गए थे
मेरे दायरों में तुम ,
और शायद बोल भी गए होगे
ख़याल रखने को

दिन भर ओढ़ कर रखती हूँ इसे
शाम को आधा बिछा लेती हूँ
और जो बचती है
इसे आँखों से गिरा
चादरों और तकियों
पे सजा लेती हूँ

ये सितारों जो सजे होते हैं तकियों पे मेरे
रात भर जुगनू सा टिमटिमाते हैं

डरती हूँ कहीं लौट करआ जाओ न तुम
मेरी शामों मेरे तकियों
पे सजे तारे समेट लेने को
लगा के मुझे फिर से
गुलाबी रौशनी का नशा
चुपचाप बिन कहे
फिर से चले जाने को
                                                           -मृदुला शुक्ला

Tuesday 2 April 2013

छोटे शहर

बस और ट्रेन मैं बैठ कर अक्सर
मेरा उस शहर से गुजरना होता है
जिसे छोटा शहर कहा जाता है
हर बार हचह्चाती हुई बस गुजरती है
उन्ही खडंजे वाली सड़कों से
जहाँ मेरी उम्र के बराबर की गुमटियों तब से खड़ी हैं
वैसे ही चार बिस्कुट डाले मर्तबानो मैं

उनकी केतलियाँ भी पुरानी नहीं होती
वैसे वो नयी भी नहीं थी कभी

बाहर बैठा मिल ही जाएगा वो योगी सा तटस्थ भाव लिए
जो बचपन में भी बूढा ही दिखता था
जिसका नाम वार महिना तिथि
या फिर अमावस पुन्वासी सा होगा

जाने क्यूँ मन की ज़मीन से होते हैं ये छोटे शहर
इनके भीतर कुछ बदलता ही नहीं
बाहर लाख बहती रहे बदलाव की बयार

प्रेम

मैं अक्सर
किसी न किसी के
प्रेम में
पड़ जाती हूँ
और फिर
काफी दिनों तक
रहती भी हूँ प्रेम में

मुझे याद है
मेरा पहला प्रेम
मैंने उसे
गली के मुहाने पर
पहली बार देखा था
कुछ सात एक साल की थी
उसके पंजो से खून रिस रहा था
वह ठंड से कांप रहा था
मैंने उसे गोद में उठाया
और घर ले आई

कोहराम सा
मच गया घर में
सबने यूँ हिकारत से
देखा मझे
जैसे कोई
घर से
भागी हुई लड़की
अपने प्रेमी के साथ
घर लौट आई हो
फिर सब कुछ वैसा ही हुआ था
जैसा प्रेम में होता है
दिन भर सोचते रहना
उसी के बारे में
अकेले में सोच कर
मुस्कुरा देना
उसके लिए सबसे लड़ना
और फिर  झूठ बोलना
(तब मैंने झूठ बोलना सीखना शुरू ही किया था)
एक नाम भी रखा था उसका मैंने
हिंदी में ही था
तब कुत्तो के अंग्रेजी नाम
कम हुआ करते थे
टी बी वाली बुआ के
अलग किये गए बिस्तरों
में से चुराकर
एक कम्बल
मैंने बना दिया था उसका एक बिस्तर
और फिर वो सोता रहता था
और मैं रात भर
उठ उठ कर उसे देखती रहती थी


दूसरा प्यार भी मुझे
उसी गली पर बैठे
एक अधनंगे पागल के साथ हुआ
जो हर पेपर को उठा कर
हर आने जाने वाले से
कहता था
'वकील साहब मिली ग हमरे रगिस्ट्री क पेपर'
तब तक मैंने पक्का वाला
जूठ बोलना सीख लिया था
माँ को कहती थी
की कितनी भूख लगती है मझे
सुर तुम टिफिन में देती हो
बस दो पराठे?
माँ को क्या पता था
की एक पराठा तो मैं
गली वाले पागल के लिए
बचा कर ले जाती थी
जिससे अभी अभी
मझे प्रेम हुआ था

फिर एक दिन खली था
गली का मुहाना
और कम्बल चुराकर
बनाया गया बिस्तर

देखो तब से आज तक
मैं बार बार पड़ जाती हूँ
प्रेम में ये जानते हुए
की होशो हवाश में रहने वाला आदमी
पागल और कुत्ते से तो कम ही वफादार होगा

शाकुंतलम

  1.  
    अभिज्ञान शाकुंतलम हर बार
    हर बार हर पात्र घटनाक्रम सही से लगते हैं

    सही लगता है
    एक महापराक्रमी राजा
    बन कुसुम सी मुकुलित शकुन्तला
    गंधर्व विवाह, एकांत रमण
    कितना सच्चा सा लगता है सब कुछ

    पर हर बार मन जाकर अटक जाता
    क्या सचमुच ऋषि शाप हुआ होगा
    शकुन्तला को,
    या वह अंश मात्र था
    चिर् शापित स्त्री जाति का

    अथवा
    शुकंतला ने खुद को ठगा हो
    अंगूठी और श्राप जैसी मनगढ़ंत
    कथाओं से
    जाने क्यों ये झूठ सा लगा मुझे

    फिर अचानक बदलता घटनाक्रम मछली मछुयारा
    सब कुछ याद आ जाना ,
    महापराक्रमी दुष्यंत का प्रेम प्रलाप
    झूठे अभिनय सा लगता है जाने क्यूँ ?

    और सबसे सच्चा लगता है
    सिंह शावक से क्रीडा करते
    भरत को देख दुष्यंत का मुग्ध होना !!
    क्या दुष्यंत तब भी मुग्ध होता ?
    यदि भरत खेल रहा होता मृग शावक से

    भावी सम्राट दिखा उसे
    याद आई शकुन्तला ,प्रेम ,भरत
    वात्सल्य पुनः अभिनय पुनः छल .