Tuesday 26 March 2013

मुखौटे

मुखौटे है हम
छुपा लेना काम है हमारा
ढांप लेना है हुनर

हम खाते हैं
गालियाँ
पीतें हैं आंसू
जीते है रुस्वाइयां
और मरते हैं बेनाम

हम कभी
किरदार में
नहीं उतरते
फिर भी
जीते हैं
हर किरदार
वो हमें
जिए न जिए

युगों से ढांपते रहे
बेचारगी
लाचारियाँ
मजबूरियां
मक्कारियां

तमाम मुल्कों की
सियासत
पलती है
चलती है
और फिर ढलती है
हमारे दम पर

हमने ही सभाला है
घर गृहस्थी
नैतिकता मर्यादा
सियासत मुल्क
और ये दुनिया

हमारे सपने
नहीं होते
हम मुखौटे भी
एक दुसरे के
अपने नहीं होते

फिर भी हमारा
न कोई इतिहास है
न भूगोल
और न अर्थशात्र
हमें दो सम्मान
हम पर महाकाव्य
करो हमारा गुण गन

वरना !!!

हम एक दिन
सामूहिक रूप से
उतर जायेंगे
तुम सब के चेहरों से

फिर देखते हैं
क्या क्या बचा
पाते हो तुम ?
                                      -मृदुला शुक्ला

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